शिया, सुन्नी और ईसाईयों का घर लेबनान.....आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा

बेरुत । फिलिस्तीन का समर्थन लेबनान की राजनीतिक और सामाजिक पहचान का अभिन्न हिस्सा रहा है। 1969 में लेबनान के पूर्व प्रधानमंत्री साएब सलाम ने कहा था, फिलिस्तीन का साथ देना लेबनान की किस्मत में है। उनका यह बयान 55 साल पुराना हो चुका है, लेकिन बयान ने आज भी लेबनान की राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। इजराइल फिर लेबनान में घुस चुका है, जबकि लेबनान फिलिस्तीन के साथ खड़ा है, भले ही उसके अपने नागरिकों की सुरक्षा को खतरा में आ गई हो। 

लेबनान, जो अपनी धार्मिक विविधता के लिए जाना जाता है, शिया, सुन्नी और ईसाई समुदायों का घर है। देश की जनसंख्या करीब 55 लाख है। 1916 में आटोमन साम्राज्य के पतन के बाद, पश्चिमी देशों ने मिडिल ईस्ट की सीमाओं को अपने हितों के अनुसार बांट दिया। फ्रांस ने 1920 में लेबनान को स्थापित किया, और आज भी वहाँ फ्रांसीसी संस्कृति का प्रभाव दिखाता है। लेबनान की धार्मिक संरचना में बदलाव आया है। 1932 की जनगणना में ईसाई 51 प्रतिशत थे, लेकिन अब उनकी संख्या घटकर 32 प्रतिशत रह गई है, जबकि शिया और सुन्नी आबादी लगभग समान है। 1943 में आजादी मिलने के बाद, देश की राजनीतिक व्यवस्था में तय हुआ कि राष्ट्रपति ईसाई होगा, प्रधानमंत्री सुन्नी होगा, और संसद का स्पीकर शिया होगा। यह व्यवस्था विभिन्न समुदायों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास थी, लेकिन स्थिति हमेशा स्थिर नहीं रही।

लेबनान में बाइबिल से जुड़े महत्वपूर्ण स्थल भी हैं। टायर शहर में काना गांव, जहां जीसस ने पानी को वाइन में बदला था, अब हिजबुल्लाह के नियंत्रण में है। यहाँ ईसाई और मुस्लिम दोनों वर्जिन मैरी की पूजा करते हैं, जो सांस्कृतिक और धार्मिक एकता का प्रतीक है।

लेबनान ने फिलिस्तीनी शरणार्थियों को अपने यहां स्थान दिया है, खासकर 1947 में इजराइल की स्थापना के बाद। इससे लेबनान को इजराइल और फिलिस्तीन के संघर्ष का मोहरा बना दिया है। अब जबकि 700 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, लेबनान का यह संघर्ष दर्शाता है कि एक छोटा सा देश किस प्रकार अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है, जो केवल उसकी राजनीतिक स्थिति नहीं, बल्कि उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान का भी हिस्सा है।




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